नई दिल्ली। भारतीय संस्कृति में जन्म से लेकर मृत्यु तक हर पड़ाव पर विशेष संस्कारों को निभाया जाता है। इन्हीं में से एक है अंतिम संस्कार, जो न सिर्फ एक धार्मिक प्रक्रिया है, बल्कि गहरे भावनात्मक और सांस्कृतिक मूल्यों से भी जुड़ा होता है। खासकर जब किसी सुहागिन महिला का निधन होता है, तो उसकी अंतिम यात्रा में एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है — उसे दुल्हन की तरह सजाया जाता है और सोलह श्रृंगार कराए जाते हैं।
क्या है सोलह श्रृंगार का महत्व?
हिंदू परंपरा में सोलह श्रृंगार को स्त्री के सौंदर्य, समृद्धि और सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसका उल्लेख रामायण काल से जुड़ा है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, माता सीता के विवाह के समय उनकी मां सुनैना ने उन्हें सोलह श्रृंगार का महत्व बताया था। तब से यह परंपरा विवाह और विशेष अवसरों पर निभाई जाती है।
अंतिम संस्कार में क्यों होता है श्रृंगार?
जब किसी विवाहित महिला का निधन होता है, तो उसे सुहागिन के रूप में, उसके सौंदर्य और जीवन की गरिमा को सम्मान देते हुए अंतिम बार दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके पीछे कई गहरे भावात्मक और धार्मिक कारण होते हैं:
- सम्मान की अंतिम विदाई
यह श्रृंगार एक परंपरा नहीं, बल्कि उस महिला के प्रति परिवार और समाज की श्रद्धांजलि होती है। यह एक भावनात्मक क्षण होता है जहां उसके जीवन के हर रूप को सम्मानपूर्वक विदा किया जाता है। - पुनर्जन्म और सौभाग्य की कामना
मान्यता है कि अंतिम यात्रा में सुहाग के श्रृंगार के साथ विदाई देने से स्त्री को अगले जन्म में भी सौभाग्य और आदर्श जीवनसाथी की प्राप्ति होती है। - सांस्कृतिक परंपरा और गरिमा की प्रतीक
श्रृंगार कर उसे विदा करना इस बात का प्रतीक है कि भारतीय संस्कृति स्त्री की गरिमा, सुंदरता और उसके जीवन के हर पहलू को श्रद्धा और सम्मान से देखती है — चाहे वो आखिरी विदाई ही क्यों न हो।
अंतिम संस्कार के दौरान किया जाने वाला सोलह श्रृंगार केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह एक गहन भावनात्मक विदाई है, जो नारी के संपूर्ण जीवन को सम्मान देने का प्रतीक है। यह परंपरा हमें यह भी सिखाती है कि एक महिला के योगदान, प्रेम, और सौंदर्य को जीवन की अंतिम घड़ी में भी संजोकर विदा करना, भारतीय समाज की कोमलता और श्रद्धा को दर्शाता है।